फेक न्यूज ने सबकी सांसें फुला रखी हैं। बच्चों के अपहरण की शेयर होने वाली झूठी खबरों के कारण एक वर्ष के दौरान करीब 29 लोगों की जान जा चुकी है। जब एक्सपर्ट्स ने इस खतरनाक चलन की पड़ताल की तो उन पांच बातों का पता चला जिनसे अफवाहें तेजी से वायरल होती हैं।
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फेक मैसेज का फैलना
सबसे ज्यादा अफवाहें फैलने की वजह वाट्सएप ग्रुप्स हैं। यह गलत, अधूरी या भ्रामक जानकारी का सबसे बड़े जरिया है और किसी को अंदाजा नहीं होता कि इसके परिणाम कितने गंभीर हो सकते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि पैरेंट्स और स्कूलों के ग्रुप्स पर जब बच्चों के अपहरण की अफवाहें शेयर होती हैं तो अधिकतर लोग इन पर भरोसा कर लेते हैं। वाट्सएप की इन अपवाहों को फैलाने में दूसरे नंबर पर फेसबुक पोस्ट हैं जहां लोग फॉरवार्डेड एज रिसिव्ड लिखकर आगे बढ़ा देते हैं। कुछ लोग इनके साथ सावधान करने वाले कैप्शन लिखकर शेयर कर देते हैं। कई बार स्थानीय बेवसाइट्स भी इन मैसेज को चला देती हैं।
सामग्री का स्वरूप
अधिकतर सूचनाएं वीडियो, सीसीटीवी की फुटेज या इसकी तस्वीरों के रूप में होती हैं। इस तरह के विजुअल्स होने से लोग इन पर भरोसा कर लेते हैं। वीभत्स वीडियो भी कॉमन हैं। इनके साथ आगाह करने वाली पंक्तियां भी होती हैं, जैसे- शहर में ठगों के गिरोह घूम रहे हैं, बाहरी लोग हैं जो दूसरी भाषा बोलते हैं, किडनी गैंग से जुड़े हैं आदि। साथ में लोकेशन के रूप में शहर या कस्बे का भी नाम होता है जिससे ये जानकारी सही व अपने शहर की ही लगती है। बच्चों के अपहरण को लेकर एक वीडियो वायरल हुआ था जो कि असल में इस तरह की घटनाओं के प्रति जागरुकता लाने के लिए कराची (पाकिस्तान) के एक एनजीओ ने बनाया था। यह भी वाट्सएप पर वायरल हो गया था।
फेक न्यूज फिल्टर क्यों नहीं होती
सच्चाई गूगल पर भी जानी जा सकती है तो लोग ऐसा करते क्यों नहीं हैं? मनोचिकित्सक श्वेतांक बंसल कहते हैं कि लोगों के मन में कई तरह की धारणाएं होती हैं और जब भी इन धारणाओं की पुष्टि करने वाली सूचनाएं उन्हें मिलती हैं तो वे मान लेते हैं कि यह सूचना सही होगी क्योंकि ऐसा हो रहा है। फिर यदि किसी हस्ती ने बयान दे दिया या मुख्यधारा के मीडिया ने लोगों की धारणाओं से मिलती-जुलती न्यूज रिपोर्ट दे दी तो ये अफवाहें आग की तरह फैलती हैं। ओडिशा में पिछले माह एक अपहृत बच्चे के मृत मिलने के बाद वहां के एक मंत्री ने इसे किडनी चोर गैंग से जोडऩे का बयान दिया था। इसके दो दिन बाद ही भीड़ ने ऐसे व्यक्ति को मार दिया जिसे त्रिपुरा सरकार ने बच्चों के अपहरण की अफवाहें रोकने के लिए तैनत किया था। प्रमुख लोगों के बयान सोशल मीडिया पर लोग समाजसेवा मानकर शेयर करते हैं और उन्हें अदाजा भी नहीं होता कि उन्होंने क्या गलत कर दिया।
शिकार कौन बनते हैं
यह सबसे दुखद पहलू है। भीड़ के निशाने पर वे लोग प्रमुखता से आते हैं जो स्थानीय लोगों से अलग दिखते हैं, दूसरी भाषा बोलते हैं, जिनका रहन-सहन, पहनावा या उच्चारण भिन्न होता है। जहां अफवाहों का जोर होता है उन इलाकों में अकेले व्यक्ति की तुलना में तीन से पांच जनों के समूह वाले लोगों को सबसे ज्यादा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
अफवाहों की आग में घी कौन डालता है
दो तरह के लोग इसका माध्यम बनते हैं। दिल्ली पुलिस को ट्रेनिंग देने वाली जयंती दत्ता के अनुसार इन फेक मैसेजों के पीछे कुछ ऐसे लोग होते हैं जिन्हें अपनी बनाई चीजें ज्यादा से ज्यादा शेयर व चर्चित होने से अपने भीतर गौरव महसूस होता है। जब इनके मैसेजों को सोशल मीडिया पर हजारों-लाखों की संख्या में हिट मिलते हैं तो इन्हें एक अलग तरह की किक फील होती है। यह स्यूडो ग्रेंडियोस्टी नामक मनोविकार होता है जिससे ग्रसित व्यक्ति इसके दुष्परिणामों या इसके शिकार लोगों के बारे में बिलकुल भी नहीं सोचते हैं।
दूसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो राजनीतिक या सामाजिक कारणों से इन झूठी सूचनाओं को फैलाते हैं। ये लोग इन मैसेज के जरिये अपनी विचारधारा फैलाने या फिर किसी विशेष वर्ग के लोगों को निशाना बनाने के मंसूबे रखते हैं। इसलिए ऐसे मैसेजों में अनेक बार ग्राफिक डिटेल्स भी होती हैं। ये लोग भ्रामक या झूठे वीडियो-तस्वीरें बनाने के लिए फर्जी सोशल मीडिया आइडी उपयोग में लेते हैं ताकि इन्हें ट्रेक ना किया जा सके।
Source: Gadgets