(बकलम विजय चौधरी)
अपने जल से, अपने तल से, अपनी लहरों से, अपनी हवाओं से और अपनी खूबसूरती से मैं तो शहर को सदैव खुशी, उत्साह और ऊर्जा देने की कोशिश करता हूं, फिर ये शहर इतना खफा क्यों हो गया, इतना नाराज क्यों हो गया कि मेरे अस्तित्व के विसर्जन की ही ठान ली। सबके प्यारे, बुद्धि के देव गणपति को विदा करते करते लोग मेरा दम घोंटने को तैयार हो गए।
गणपति के साथ पॉलिथिन की हजारों थैलियां, मालाएं, लकडिय़ां, पूजन वस्त्र, पूजन सामग्री से भरे झोले, नारियल, अगरबत्ती के पैकेट, रुई, दीपक, बाती, अबीर, गुलाल, धूपबत्ती, कपूर, चंदन, कंकु, अभ्रक, हल्दी, आभूषण, रोली, सिंदूर, सुपारी, पान के पत्ते, कमल गट्टे, कुशा और भी न जाने क्या क्या मुझमें अर्पित-समर्पित कर गए। और हां, पीओपी से बनी मूर्तियां भी मुझमें डाली जा रही थीं।
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मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ढोल नगाड़ों के साथ एकदंत को लाने वाला जनसमूह मुझ पर इतना कहर क्यों बरपा रहा है? मुझे याद हैं वे वादे, वे बातें, जिसमें कहा गया था कि मुझे मैला नहीं किया जाएगा, पर्यावरण के शत्रु पीओपी से मूर्तियां नहीं बनाई जाएंगी, कोई ऐसा करता पाया गया तो उस पर सख्ती बरती जाएगी। आखिर क्या हुआ उन सब बातों का, पुलिस-प्रशासन की मौजूदगी में सारे कायदे टूटते रहे। किसी ने यह सोचा ही नहीं कि आखिर मैं ये सबकुछ कैसे सहन करूंगा और क्यों?
और फिर मुझमें भी तो जिंदगियां बसती हैं। जल में रहने वाले जीवों का आसरा हूं मैं। क्या लोग अब तक यह नहीं जान सके हैं कि पानी को प्रदूषित करने से उन जीवों के प्राण संकट में आ जाते हैं? कई जीव मर जाते हैं और मेरी तलहटी में आकर चिरनिद्रा में सो जाते हैं। इन लाशों को समेट कर मैं बेबस हूं।
अब मैं देख रहा हूं कि कुछ युवाओं और नाव वालों को लगाकर मेरे किनारों पर जमी गंदगी को साफ करने का सिलसिला शुरू हुआ। वे लोग गंदगी को छांट रहे हैं, बाहर निकाल रहे हैं। कोशिश कर रहे हैं कि किनारे साफ कर दें। मगर, इन्हीं किनारों पर महाकाय की दुर्गति भी हो रही है।
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कल तक जो प्रतिमाएं पूजी जा रही थीं, उनके शरीर मुझमें घुल ही नहीं पा रहे हैं। वे इधर से उधर बह रही हैं। एक-दूसरे से टकरा रही हैं। उनके चारों और फैली सामग्री से सड़ांध उठने लगी है। क्या ये सब सही है? क्या इन प्रतिमाओं का ऐसा अपमान होना चाहिए? क्या और कोई विकल्प नहीं हो सकते हैं? हर साल क्या मैं यूं ही बेबस और लाचार सबकुछ सहता रहूंगा?
क्या मंगलमूर्ति का सांकेतिक विसर्जन करके समस्त प्रतिमाओं को किसी कुंड में या किसी अस्थायी जल स्रोत में अर्पित नहीं किया जा सकता है? क्या यह सुनिश्चित नहीं हो सकता है कि प्रतिमा सिर्फ और सिर्फ मिट्टी की ही बनाई जाएंगी और उन्हें समर्पित करने के पूर्व अन्य सामग्री हटा ली जाएगी? जरूर हो सकता है, सोचेंगे तो हो ही सकता है।
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मुझे याद हैं वो दिन, जब मैं पूरी तरह से सूख चुका था और यूं कहें कि मर ही गया था। तब इसी शहर के लोगों ने हाथ से हाथ मिलाया और मेरी रगों में पानी बहाया। उस वक्त लोगों ने ठाना था, अब इसे कभी मरने नहीं देंगे। मगर जो हो रहा है और जो हुआ है, वह मुझे तिल तिलकर मारने से कम भी तो नहीं। मैं तड़प रहा हूं और मेरा जी घुट रहा है। मुझे उम्मीद है, कोई तो आएगा और मेरे बारे में सोचेगा, मुझे बचाएगा। हां, कागजी औपचारिकता के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने विसर्जन के बाद पानी के नमूने लिए हैं, लेकिन उनके पहले के आंकडे़ भी अब तक कागजों से नहीं निकले।
मुझे ये आभास भी हो रहा है कि मैं शहर के बीचोबीच होने को परिणाम भोग रहा हूं, लेकिन मैं जा भी कहां सकता हूं। मैं यहीं हूं और यहीं रहूंगा। बिल्कुल वैसा ही रहूंगा, जैसा यह शहर मुझे रखना चाहेगा। आज जैन समुदाय का क्षमापर्व है और ऐसे में मैं आज क्षमादान से किसी को कैसे वंचित कर सकता हूं?
आज तो मैं उन सभी प्राणियों को क्षमा करता हूं, जिन्होंने जाने-अनजाने में मुझे कष्ट पहुंचाया है, उन सभी को भी क्षमा करता हूं जो मेरे बारे में कभी कुछ सोच ही नहीं पाए और साथ ही उन सभी को भी क्षमा करता हूं, जो मेरा दर्द जानने के बाद भी मौन हैं।
Source: Suvichar